Friday, February 4, 2011

लौकियां




कहानी सुनाने से पहले लेखक की एक व्यक्तिगत समस्या

दरअसल व्यक्तिगत समस्या में कहानी लेखक आपको इसलिए घसीटना चाहता है कि इसके साथ कहानी के जन्म का संबंध है। यह समस्या लेखक के सामने उपस्थित न हुई होती तो शायद यह कहानी भी नहीं लिखी गई होती। हुआ यूं कि लेखक की श्रीमती को एक दिन लगने लगा कि लोगों के सिर पर सींग उग आए हैं और वह उन सींगों से डरने लगी। मसलन वह अपने उन दोनों बच्चों से भी डरने लगी जिन्हें लेखक कभी कुछ कह देता तो घर में कलह हो जाता। उसे बच्चों के माथे पर सींग उगे दिखाई देते और लगता कि मौका मिलते ही बच्चे अपने सींग उसके पेट में घोंपकर पेट फाड़ डालेंगे। दूध वाला आने पर दूध लेने पहले की तरह वह खुद नहीं जाती और उस भोले-से ग्वाले के सर पर भी उसे सींग दिखाई देने लगे थे। घर में चौका-बर्तन के लिए आने वाली महरी के सर पर भी उसे सींग दिखाई देने लगे। जिन लोगों का घर में रोज-रोज का आना-जाना था उनसे वह दूर रहने लगी। लेकिन नए लोगों से उसे कोई डर नहीं लगता था। उसका कहना था इनके सर पर सींग नहीं उगे हैं।

लेखक इसे अब तक मनोवैज्ञानिक समस्या ही मान रहा था कि एक दिन उसकी पत्नी ने सर में गूमड़ उग आने की शिकायत की। उसने देखा कि यह कोई मन का वहम नहीं बल्कि सचमुच सर पर दोनों तरफ दो गूमड़ उग आए थे। उनमें भयंकर दर्द भी था। डाक्टर के पास जाने के मामले में आलसी लेखक ने दो-तीन दिन ऐसे ही घुला दिए कि देखा गुमड़ सीधे और नोंकदार हो गए हैं। वे काफी सख्त भी हो गए थे। लेखक बेचारा हड़बड़ी में अपनी पत्नी को डाक्टर के पास ले गया। डाक्टर ने सरसरी तौर पर देखकर दवाएं लिख दीं। लेकिन देखा गया कि सप्ताह भर में ही गूमड़ और भी लंबे और नोंकदार हो गए हैं। वे घाव नहीं थे क्योंकि उनमें पीव या मवाद बिल्कुल नहीं थी। यहां तक कि अब वे दबाने पर दुखते भी नहीं थे। अब वे इतने बड़े हो गए थे कि घने बालों के बाहर भी झांकने लगे थे और किसी अनजान व्यक्ति की भी उस पर सहज ही नजर पड़ जाती थी। पहले मनोवैज्ञानिक बीमारी और अब सर में ये अजीब गूमड़ - दोनों में संबंध निकालने बैठा तो कल्पना मात्र से ही लेखक का सर घूम गया। उसने अपनी लेखकीय कल्पना शक्ति को धिक्कारा और ठान लिया कि इस बात का किसी से जिक्र भी नहीं करेगा। दवाएं लेते हुए और एक सप्ताह बीत गया और इस दौरान उसने देखा कि उसकी डरावनी कल्पना ही साकार रूप ले रही है। उसकी श्रीमती के सिर पर वैसे ही दो सींग उग आए थे जैसे उसे औरों के सरों पर उग आने का वहम हो गया था। लेखक ने बहुत इलाज करवाया, लेकिन इस बीमारी का डाक्टरों की किताबों में कोई जिक्र ही नहीं था, वैद्यों के ग्रंथों में कोई उल्लेख नहीं था। लिहाजा लेखक और उसकी पत्नी के पास धीरे-धीरे बीमारी के साथ जीना सीखने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। वैसे उसकी पत्नी अब ज्यादा परेशान भी नहीं करती थी। वह ज्यादातर अपने कमरे में ही बंद रहती। बच्चों से उसे डर लगना बंद हो गया, लेकिन उन्हें ज्यादा पास भी नहीं फटकने देती। दूध वाले, सब्जी वाले, अखबार वाले जैसे लोगों ने अब तक जान लिया था कि भाभीजी को दिमागी रोग है सो वे भी उससे कोई बात नहीं करते। सबसे ज्यादा दिक्कत सगे-संबंधियों, रिश्तेदारों के आने पर होती। पत्नी उन्हें देखते ही अपने सींग दिखाकर मरखनी गाय की तरह दौड़ना चाहती। नाते-रिश्ते वाले च् च् कर सहानुभूति दिखाते, लेकिन लेखक का कल्पनाशील मन कल्पना करता कि निश्चय ही ये लोग अकेले में उसका मजाक उड़ाते होंगे। साथ ही हर कोई अपनी सहानुभूति को असली साबित करने के लिए कोई न कोई नुस्खा या किसी साधु-महात्मा-ओझा-गुणी का पता जरूर बताता। साथ ही ऐसा भी कुछ जरूर जोड़ता जिससे लेखक की भावनाएं आहत हों। मसलन लेखक की शहर में ही रहने वाली बहनें यह कहने से नहीं चूकतीं कि इलाज तो कई तरह के होते हैं और हैं, लेकिन बताने से क्या फायदा। विश्वास करने वाला भी तो होना चाहिए। लेखक के समाज में राजस्थान के मेंहदीपुर के बालाजी की बड़ी मान्यता है। मानसिक रूप से विकारग्रस्त लोगों को वहां ले जाने की सलाह जरूर दी जाती है। लेखक को भी यह सलाह दी गई। यहां तक कहा गया कि मान लिया श्रद्धा नहीं है, लेकिन एक बार लेकर तो जा, ज्यादा से ज्यादा यही तो होगा कि भाभी ठीक नहीं होंगी। लेखक कहता कि उनकी भाभी मानसिक विकारग्रस्त होतीं तो सर में गूमड़ (वह उन्हें सींग कहने और मानने में अब भी डरता था) कैसे उग आते। बहनों के पास इसका जवाब नहीं होता। वे अपने जिद्दी भाई को ही दोषी ठहराती हुईं थोड़ी ही देर बाद सड़क पर रिक्शा खोजती होतीं। भाई का कल्पनाशील मन उन्हें आपस में यह चुगली करते सुनता, यह विनोद भी कम जिद्दी नहीं है। नहीं तो आज के युग में किसी बीमारी का इलाज संभव नहीं यह कौन मानेगा?

असली कहानी शुरू होती है अब

विनोद और प्रणवजीत को हसन अली का पता एक अन्य पत्रकार मित्र से ही मिला था। उसने कहा था हसन अली से मिल लेना और टनटना स्टोरी तैयार हो जाएगी। हसन अली कोई महान आदमी नहीं और न ही उसकी इस कहानी में कोई प्रमुख भूमिका है, लेकिन ऐसे लोग अपनी कोई न कोई भूमिका खोज ही लेते हैं। बस उन्हें यह बर्दाश्त नहीं होता कि किसी काम को आप उनकी भूमिका के बिना ही संपन्न कर लें।

गांव से बाहर हाई-वे पर गाड़ी रोककर प्रणव ने एक राह चलते मौलवी से हसन अली का पता पूछा था। मौलवी उसी गांव का था। उसने बताया कि गांव में तीन हसन अली हैं आप किससे मिलना चाहते हैं? दोनों चुप। इस पर मौलवी ने खुद ही अंदाज लगाते हुए गंवई भोलेपन से पूछा, क्या आप नेता संप्रदाय के हसन अली से मिलना चाहते हैं? विनोद और प्रणव ने हां में सिर हिलाया। पत्रकारों के काम का व्यक्ति कोई नेता ही हो सकता था। उन्हें पता मिल गया। उन्होंने ध्यान दिया मौलवी के चेहरे पर कहीं भी नेता संप्रदाय के हसन अली के लिए या अपने उच्चारित शब्दों के लिए व्यंग्य भाव नहीं था। बल्कि गांव के एकमात्र पक्के घर के मालिक और मदरसे के अध्यक्ष के लिए मौलवी साहब के लहजे में काफी सम्मान था। थोड़ी ही देर में उनकी वैन गांव के अंदर थी। दो गैर-नेता हसन अली के घर पार करते हुए वैन एक मस्जिद के सामने रुकी। उससे जुड़ा हुआ पक्का घर हसन अली का ही था।

हाई-वे से थोड़ा ही अंदर था वह गांव। गांव के लिहाज से रास्ता अच्छा ही कहा जाएगा। हसन अली घर से बाहर ही पत्रकारों का इंतजार कर रहा था। उसे पहले ही उनके आने की सूचना मोबाइल पर मिल चुकी थी। मौलवी साहब ने ही इसकी सूचना दी होगी। छोटा-मोटा घर था, भले गांव में उसे मकान कहते होंगे। घर के बाहर प्लास्टिक की चटख रंग की कुर्सियां डाल दी गईं। गांव के कई युवा वहां जमा हो चुके थे। ज्यादातर लूंगी में थे, कोई-कोई पेंट में। सभी ने पूरी बांह की कमीज पहन रखी थी। हसन की पोशाक, पैंट-शर्ट के कारण शहर में कोई भी उसे नेता मानने से इनकार कर देगा। सभी पैंतीस से नीचे के थे। गांव में क्या बुजुर्ग नहीं हैं? दोनों के दिमाग में सवाल आया पर किसी ने पूछा नहीं। दोनों ने अपने-अपने वाहियात सवाल पूछे। जैसे कि, क्या उनलोगों को उस घटना के बारे में अब भी याद है? क्या रात के अंधेरे में जब खेत पार करते हैं तब उन्हें वह घटना याद आतीहै? याद आती है? क्या याद आता है? कि उनके मन में कभी बदला लेने की भावना नहीं जगती? कि वे भूत-प्रेत में विश्वास रखते हैं? कि जिन खेतों में मासूमों के शवों को गाड़ा गया उनमें हल चलाते हुए कभी उनके दिल की धड़कन तेज होती है? क्या हल चलाते समय कभी कोई हड्डी या खोपड़ी हल के फाल में अटक नहीं जाती? घटना के समय आपकी उम्र कितनी रही होगी? घटना को आपने अपनी आंखों से देखा था? जरा विस्तार से बताएं क्या देखा था? आप अपने बच जाने के लिए किसके प्रति कृतज्ञ हैं? क्या आपको लगता है तब से सूबे की स्थिति अब बेहतर हुई है? क्या सरकार ने आपलोगों के गांव के विकास पर पर्याप्त ध्यान दिया है?

वे लोग उसी चालू अंदाज में जवाब दे रहे थे जैसे पुलिस के अधिकारी बम विस्फोट स्थल पर संवाददाताओं से बात करते हैं। एक ही बात को कई बार कई लोगों के सामने दोहराने पर लहजा ऐसा मशीनी हो जाता है। रेल के डिब्बों में रो-रोकर कुछ मांगने वाले कुछ न मिलने पर जिस कामकाजी तरीके से तेजी के साथ आगे बढ़ते हैं वैसे ही गांव के नौजवान एक सवाल का जवाब देकर दूसरे सवाल के लिए दोनों की तरफ ताकते थे। दोनों ने जेबी नोटबुक में कुछ-कुछ घसीटा जिसे पहली पीढ़ी के शिक्षित नौजवानों ने हैरत की नजरों से देखा। इस बीच विनोद का कैमरा परेशान करता रहा। फोटो न होने पर तो आना बेकार ही हो जाता। उसने जेब से दूसरी बैटरियां निकालकर बदल डालीं। अब कैमरा ठीक हो गया था। नेता प्रजाति के जीव को कुर्सी पर बैठाकर और खड़ाकर अलग-अलग पोजों में कई स्नैप लिए।

कोई पंद्रह-सोलह मिनट के संवाद में दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखाएं तय कर लीं। तय कर लिया कि कितने रोशनदान खोलने हैं, कितनी खिड़कियां खुली रहेंगी। दरवाजे खोलने का तो सवाल ही नहीं उठता। नौजवान जान गए कि आगंतुक उनके भूत में झांकने आए हैं, उन्हें उनके वर्तमान से कोई मतलब नहीं। गांववासी अपने भूत को भूलकर अपने वर्तमान को सुधारना चाहते थे। और बचे हुए समय को ऐसे लोगों के साथ जीना चाहते थे जो उन्हें उनके भविष्य के झूठे-सच्चे सपने दिखाए। दोनों पत्रकार जान गए कि लाख सर खपाने पर भी उन्हें कोई ऐसा वाक्य नहीं मिलने वाला जो चमत्कार पैदा करने वाली सुर्खी दे दे। दोनों ने अपनी नोटबुक जेब में डाल ली, कलम बंद कर लिए। कैमरा समेट लिया।

वापस लौटते समय हसन के घर से थोड़ी दूर पर ही प्रणव ने गाड़ी रोक ली। उसे खेत में बांस के छाजन से लटकती हुई लौकियां नजर आ गई थीं। लौकियों के छाजन के नीचे किसी किसान के बच्चे खेल रहे थे। दोनों ने बच्चों को गिना नीचे दो साल से लेकर ऊपर दस-बारह बरस तक के बच्चे थे। प्रणव ताजा लौकियों के लिए ही रुका था। विनोद अपने कैमरे से गांव के दृश्य कैद करने लगा। पास ही एक पाठशाला थी, जिसके बरामदे में एक शिक्षक पांच-छह बच्चों को पढ़ा रहा था। गांव के ज्यादातर बच्चों को तो उनलोगों ने रास्ते भर खेतों में खेलते देखा था। अभी उनकी गाड़ी के आसपास दर्जन भर बच्चे मंडरा रहे थे। विनोद इन दृश्यों को कैमरे में भरता रहा। प्रणव को लौकियों की सब्जी का शौक है। बल्कि लौकियों का ही नहीं, रास्ते किनारे बिकती कोई भी सब्जी, मछली या तरबूज जैसी चीज खरीदकर घर ले जाना उसके शौक में शामिल है। दर्जन भर विभिन्न उम्र के बच्चों से घिरा प्रणव चार लौकियां खरीदकर वैन में डाल ही रहा था कि दोनों ने खेत के पास के घर से शोर-सा सुना। लगा कोई महिला किसी के साथ झगड़ा कर रही है। उनकी पत्रकारीय नाक किसी स्टोरी की उम्मीद में सर ऊंचा कर कुछ सूंघने की कोशिश करने लगी। दोनों उतरकर उस घर की ओर चल पड़े। कच्चे फर्श का मकान था, ऊपर टीन की चद्दरों की छत पड़ी थी। देखा वहां कोई उत्तेजना नहीं थी। समझ गए कि झगड़ा नहीं हुआ है। फिर माजरा क्या है। एक लूंगीधारी युवक ने बताया कि दरअसल इस घर की महिला को लगता है कि उसके पास आने वाले लोगों के सर पर सींग उग आए हैं। ऐसा कहते हुए वह थोड़ा मुस्कुराया। ..यहां तक कि अपने बच्चों से भी उसे डर लगता है। कहती है दूर रहो, पूर्णिमा की रात को खूब चिल्लाती है। कभी-कभी काबू में नहीं आने पर घर वाले हाथ-पांव बांधकर कमरे में बंद कर देते हैं। वैसे किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती। बेचारी खुद ही दुखियारी है।

- क्या उसके भी सर पर सींग जैसा कुछ उगा है? विनोद ने पूछा।

- हां, हां। मगर आपको कैसे पता? युवक अचरज से विनोद की ओर देखने लगा।

विनोद ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन अचानक उसके चेहरे पर पत्नी की रहस्यमय बीमारी को लेकर चिंता की लकीरें उभर आईं। इसका कोई इलाज करवाया है? उन दोनों को देखकर डर से सिकुड़ती नाक के ठीक बीच में बंगाली मुसलमानों की चाल की बाली पहने उस महिला को नजरंदाज करते विनोद ने पूछा।

- इलाज ? लूंगीधारी ने एक बार दोनों को फिर से ध्यान से देखा। मानों सोच रहा हो कि इनलोगों को सारी बात बताई जाए या नहीं। फिर होठों पर अभ्यासवश रहने वाली मुस्कुराहट की छाप के साथ उसने बताया - एक डोरा ले रखा है। वह पहनते ही ठीक हो जाएगी।

- डोरा? वह क्या होता है?

युवक पूरी बात सुनने से पहले ही अंदर चला गया था। उसने एक लिफाफे से एक मोटा काला धागा बाहर निकाला। इसे डोरा कहते हैं हमलोग। इसे पहनने के बाद इसकी बीमारी ठीक हो जाएगी?

- इसे पहनने से ठीक हो जाएगी? रोकने का प्रयास करते-करते भी विनोद के चेहरे पर आया व्यंग्य चमक गया। तो फिर पहना क्यों नहीं देते?

- पहनाएंगे। लेकिन यह डोरा 18 फरवरी को रात में पहनना पड़ता है। ओझा ने ऐसा ही बताया है। अब फरवरी आने में महीना भर ही बाकी बचा है।

वह जनवरी महीना था। खेतों में उगी सरसों के पीले फूल झूम-झूमकर इस बात की इत्तला दे रहे थे। जहां उनकी वैन खड़ी थी उसके ठीक ऊपर गुच्छों में झूमते हरे, पीले और लाल बेर भी यही दोहरा रहे थे। नाक से तरल पदार्थ बहाता एक बच्चा कभी वैन और कभी बेर की ओर ताक रहा था। शायद सोच रहा था कि वैन पर चढ़ पाता तो कितने बेर हाथ लग जाते।
- लेकिन ठीक हो जाएगी इसके बारे में इतने इत्मीनान से कैसे कह रहे हो?

- हां बाबूजी बिल्कुल ठीक हो जाएगी। इस गांव के लोगों में तो यह बीमारी होती ही रहती है। अब तक गांव के 23 लोगों को यह रोग हो चुका है और सारे के सारे रोगी डोरे से ठीक हुए हैं। डाक्टरी इलाज का तो हम गरीबों के पास पैसा भी नहीं है।

क्षमा सहित लेखक का हस्तक्षेप

पाठक समझ ही चुके होंगे कि लेखक को अनजाने ही मनमांगी मुराद मिल गई थी। जैसाकि भारत में अक्सर होता है डोरा-ताबीज-जंतर-मंतर में विश्वास नहीं करने वाले और इन सबकी हंसी उड़ाने वाले जब अपने ऊपर आती है तो सारी चीजों में विश्वास करने लग जाते हैं। हमारे लेखक भी अपनी पत्नी की बीमारी को अब तक लाइलाज मान चुके थे। उन्हें जब इस पिछड़े और अभागे गांव में अपनी पत्नी के लिए आशा की किरण नजर आई तो उनकी लूंगीधारी की बातों में दिलचस्पी बढ़ती गई। और लेखक अपने मित्र के साथ जब वापस शहर लौट रहा था तब उसकी जेब में ही वैसा ही एक लिफाफा था जैसा लूंगीधारी के पास था। लिफाफे के अंदर डोरा था और लेखक के दिमाग में यह बात उमड़-घुमड़ रही थी कि 18 फरवरी को साफ हाथों से श्रीमती के गले में डोरा बांध देना है। दूसरे पढ़े-लिखों की तरह उसने भी सोचा कि चलो ठीक नहीं भी हुई तो नुकसान तो नहीं होगा। करके देखने में हर्ज क्या है?

यात्रा के दौरान लेखक ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि डोरा पहनने के लिए आखिर 18 फरवरी को ही क्यों चुना गया। उसने सोचा कि होगा कोई कारण, ओझाओं के टोने-टोटके होते हैं। अमुक काम पूर्णिमा को करना है, अमुुक दान अमावस्या को करना चाहिए, अंगुठी देकर कहेंगे शनिवार को पहनें या फिर कहेंगे शनिवार छोड़कर किसी भी दिन पहन लें। लेखक कभी इस गोरखधंधे में पड़ा ही नहीं।

फिर चलें कहानी में


विनोद उस दिन जब अपने दफ्तर में गांव के दौरे का समाचार पूरा करने बैठा तब भी उसके दिमाग में काले डोरे वाला प्रकरण चल रहा था। अचानक ध्यान आया कि गांव में वह घटना भी तो 18 फरवरी को घटी थी। एक ही रात में 1753 लोगों का कत्लेआम। वह युद्ध नहीं था। युद्ध होता तो दाव गले पर पीछे से नहीं सामने से चलाया जाता। हेंगदाङ पीठ में नहीं पेट में घुसेड़े जाते। वह युद्ध नहीं था क्योंकि युद्ध होता तो बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को बख्श दिया गया होता। जबकि उस रात बच्चों और महिलाओं को कत्ल के लिए इसलिए चुना गया कि वे अपने जवान पिताओं, पुत्रों और पतियों की तरह तेज गति से भाग नहीं पाए थे। उन्हीं खेतों में उन बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों को दफनाया गया था जहां उस दिन विनोद और प्रणव ने नाक से तरल बहाते बच्चों को बेरियों में उलझे देखा था। जिन लौकियोंं के स्वाद की विनोद ने जिंदगी में पहली बार खुलकर प्रशंसा की थी उनकी पौष्टिकता बढ़ाने में जरूर उन 1753 भाग्यहीनों की नश्वर देह का भी योगदान था।
थाने की जिन फाइलों में उन भाग्यहीनों के नाम और मामले दर्ज हैं उनके अस्तित्व को मिटाने में किताबी कीड़े बड़ी निष्ठा के साथ लगे हुए थे। संपादक ने भी उससे कहा था क्यों फिर से उठा रहे हो इस मामले को। दफन हो जाने दो इस किस्से को लोकस्मृति के किसी अंधेरे गह्वर में। विनोद ने जैसे-तैसे समाचार पूरा किया।

रात को पत्नी के सींग उगे सर से अपना सर सटाए जब वह एक पत्रिका में कवि सोमदत्त के यूरोप से लिखे पत्र पढ़ रहा था तब अचानक वह चौंक उठा। 21 अक्टूबर 1940 को क्रागुएवात्स नामक जगह पर जर्मन सेनाओं ने 7000 पुरुषों, बच्चों, मास्टरों को गोलियों से भून डाला था। सुबह 7 बजे से दोपहर 1 बजे के बीच। जरा जरा से बच्चे - उनमें से कुछ ने कागज के पुर्जों में अपनी मां के लिए या किसी के लिए, पिता ने अपने बच्चों या मां के लिए कुछ शब्द लिखे - उन सात हजार लोगों की कब्रें वहां 350 एकड़ जमीन में जहांतहां बिखरी पड़ी है। यूगोस्लाव लोगों ने वहां बहुत अच्छे स्मारक बनाए हैं। फूलों के पेड़ रोपे हैं। चारों ओर हरियाली है। हर बरस 21 अक्टूबर को उनमें से एक स्मारक पर - जिसका नाम लेसन है - पूरे यूगोस्लाविया से कवि इकट्ठे होते हैं। और खुले आसमान के नीचे बैठे लगभग अस्सी हजार लोगों के सामने - उस अविस्मरणीय घटना को लेकर लिखी गई कविताएं सुनाते हैं।

विनोद ने पहली बार अपनी डायरी में एक कविता लिखी -

वहां की लौकियां हैं दुनिया में सबसे स्वादिष्ट
1753 लोगों ने बनाया है उस मिट्टी को खास
18 फरवरी को कवि इकट्ठे नहीं होते वहां
नहीं याद करता अब कोई उस बात को
बस जिनके अपनों के उग आते हैं सींग
वे इंतजार करते हैं साल भर 18 फरवरी का।

लेखक की अंतिम टिप्पणी

लेखक ने 18 फरवरी को अपनी पत्नी के गले में वह काला डोरा पहना दिया और भले आप ऐसी चीजों में विश्वास नहीं रखते हों, लेकिन कम-से-कम इस मामले में यकीन मानिए कि सप्ताह भर के अंदर लेखक की पत्नी के सर से सींग ऐसे गायब हो गए मानों कभी थे ही नहीं।


संपर्कः
विनोद रिंगानिया
दैनिक पूर्वोदय, क्रिश्चन बस्ती, जी. एस. रोड
गुवाहाटी - 781005
फोनः 098640-72186